कांग्रेस नेतृत्व और उसकी गलाघोंटू नीति – स्वामी सहजानन्द सरस्वती 1949
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लेकिन, 1945 के चुनावों की सफलता के बाद उसमें पतन के चिद्द दीखने लगे और 15 अगस्त, 1945 के आते-न-आते वह खाँटी भोग-संस्था, भोगियों की जमात, उनका मठ बन गयी। महात्माजी के उस समय के व्यथापूर्ण उद्गार इसे साफ बताते हैं। यही कारण है, उनने अपने बलिदान के एक दिन पूर्व-29 जनवरी को बेलाग ऐलान किया था कि कांग्रेस तोड़ दी जाये और उसका स्थान लोकसेवक संघ ले ले। सारांश, कांग्रेस-जन योगी बने रहकर अब उसे लोकसेवक संघ के रूप में बदल दें। यही बात वे लिखकर भी दे गये-इसी की वसीयत कर गये। मगर भोगी लोग इसे कब मानते? उनने महात्मा की महान आत्मा को रुलाया और कांग्रेस की भोगवादिता पर कसकर मुहर लगा दी। महात्मा चाहते थे कांग्रेस चुनावों के पाप-पक में न फँसे; मगर उनके प्रधान चेलों ने न माना। कांग्रेस भोगियों का अव बन गयी है, यह तो चोटी के नेता लोग साफ स्वीकार करते ही हैं। कौन-सी सार्वजनिक सभा नहीं है, जिसमें वे यह बात कबूल नहीं करते, सो भी साफ-साफ धिक्कार के साथ!